भारतीय वन्य जीव संस्थान (Wildlife Institute of India) की एक रिपोर्ट के बाद केंद्र और राज्य सरकारें घिरती नजर आ रही हैं। WII ने अपनी अध्ययन रिपोर्ट में साफ किया है कि हसदेव अरण्य क्षेत्र में नई खदानों को अनुमति दी गई तो उसके भयानक परिणाम होंगे। पढ़िए exclusive रिपोर्ट “इन्सान बनाम जानवर” हक और जमीन की लड़ाई…
हाथी-मानव द्वंद बढ़ेगा
हसदेव अरण्य कोलफील्ड की जैव विविधता का और वहां के जीवों पर पड़ने वाले असर का अध्ययन करने के बाद भारतीय वन्यजीव संस्थान ने हाल ही में अपनी रिपोर्ट सौंपी है। 277 पेज की रिपोर्ट में कहा गया कि देश के एक प्रतिशत हाथी छत्तीसगढ़ में हैं। वहीं हाथियों और इंसानों के संघर्ष में 15% जनहानि केवल छत्तीसगढ़ में होती है। किसी एक स्थान पर कोयला खदान चालू की जाती है तो हाथी वहां से हटने को मजबूर हो जाते हैं। वे दूसरे स्थान पर पहुंचने लगते हैं, जिससे नए स्थान पर हाथी-मानव द्वंद बढ़ता है। ऐसे में हाथियों के अखंड आवास, हसदेव अरण्य कोल्ड फील्ड क्षेत्र में नई माइन खोलने से दूसरे क्षेत्रों में मानव-हाथी द्वंद इतना बढ़ेगा कि राज्य को संभालना मुश्किल हो जाएगा।
NGT की वजह से सरकार को कराना पड़ा था अध्ययन
केंद्रीय वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने जुलाई 2011 में 1 हजार 898 हेक्टेयर में परसा ईस्ट केते बासन कोल ब्लॉक के लिए स्टेज वन की अनुमति प्रदान की। उसी समय भारत सरकार की फॉरेस्ट एडवाइजरी कमेटी ने इस आवंटन को निरस्त करने की अनुशंसा की थी। बाद में 2012 में स्टेज-2 का फाइनल क्लीयरेंस भी जारी कर दिया गया। 2013 में माइनिंग शुरू भी कर दिया गया।
छत्तीसगढ़ के सुदीप श्रीवास्तव ने इसके खिलाफ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) प्रिंसिपल बेंच में अपील दायर की। NGT ने भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद और भारतीय वन्यजीव संस्थान से अध्ययन कराने की सलाह दी। वर्ष 2017 में केंद्रीय पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने केते एक्सटेंशन का अप्रूवल इस शर्त के साथ जारी किया कि दोनों संस्थाओं से हसदेव अरण्य कोल्ड फील्ड की जैव विविधता पर रिपोर्ट ली जाएगी।
3 जिलों का क्षेत्र
हसदेव अरण्य कोलफील्ड, छत्तीसगढ़ के सरगुजा, सूरजपुर और कोरबा जिले में फैला बहुमूल्य जैव विविधता वाला वन क्षेत्र है। इसमें परसा, परसा ईस्ट केते बासन, तारा सेंट्रल और केते एक्सटेंशन कोल ब्लॉक आते हैं। वर्तमान में सिर्फ परसा ईस्ट केते बासन में खनन चल रहा है।
स्थानीय आदिवासी ग्रामीण इस जंगल को बचाने के लिए पिछले महीने 300 किलोमीटर पैदल चलकर राजधानी पहुंचे थे। उन्होंने राज्यपाल और मुख्यमंत्री से मिलकर वहां खनन रुकवाने की मांग की थी। टीएस सिंहदेव ने उस समय भी उनका समर्थन किया।
स्थानीय आदिवासी खनन के खिलाफ
रिपोर्ट में बताया गया है, हसदेव अरण्य कोलफील्ड और उसके आसपास के क्षेत्र में मुख्य रूप से आदिवासी रहते हैं। वे वनों पर बहुत ज्यादा आश्रित हैं। नान टिंबर फॉरेस्ट प्रोड्यूस से उनकी मासिक आय का 46% हिस्सा आता है। इसमें जलाऊ लकड़ी, पशुओं का चारा, औषधीय पौधे और पानी शामिल नहीं है। अगर इनको भी शामिल कर लिया जाए तो कम से कम 60 से 70 % आय वनों से होती है। स्थानीय समुदाय माइनिंग के पक्ष में नहीं हैं।
• रिपोर्ट में सामने आया कैसे जीवों का घर है यह जंगल
भारतीय वनजीव संस्थान ने रिपोर्ट में बताया कि यहां कई तरह के प्राणी कैमरे में कैद हुए हैं। इसमें सूची-एक के हाथी, भालू, भेड़िया, बिज्जू, तेंदुआ, चौसिंगा, रस्टी स्पॉटेड बिल्ली, विशाल गिलहरी, पैंगोलिन शामिल हैं। सूची-2 के सियार, जंगली बिल्ली, लोमड़ी, लाल मुह के बन्दर, लंगूर, पाम सीवेट, स्माल सीवेट, रूडी नेवला, कॉमन नेवला की मौजूदगी है।
• यहां सूची-3 में शामिल लकड़बग्घा, स्पॉटेड डिअर, बार्किंग डिअर, जंगली सूअर, खरगोश, साही की भी मौजूदगी है। रिपोर्ट के मुताबिक यहां पर दो प्रजातियां विलुप्तप्राय श्रेणी की हैं। तीन संकटग्रस्त हैं और पांच पर खतरा आ सकता है। वन्य जीवों की 15 सामान्य प्रजातियों का भी यह घर है। इस क्षेत्र में 92 प्रकार के पक्षी रहते हैं।
WII ने अध्ययन में कई तथ्य उजागर किए।
• भारतीय वन्य जीव संस्थान ने बताया कि वर्तमान में परसा ईस्ट केते बासन में माइनिंग चालू है। माइनिंग की अनुमति सिर्फ इसी के लिए रहनी चाहिए। अद्वितीय, अनमोल और समृद्ध जैव विविधता और सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों को देखते हुए हसदेव अरण्य कोलफील्ड का और उसके चारों तरफ के क्षेत्र को नो-गो एरिया घोषित किया जाना चाहिए।
• भारतीय वन्य जीव संस्थान ने रिपोर्ट मे कहा, इस क्षेत्र में दुर्लभ, संकटग्रस्त और विलुप्तप्राय वन्यप्राणी थे और हैं भी। इस क्षेत्र में पूरे वर्ष भर हाथी रहते हैं। यहां तक कि कोरबा वन मंडल में, हसदेव अरण्य कोलफील्ड क्षेत्र के पास बाघ भी देखा गया है। यह क्षेत्र अचानकमार टाइगर रिजर्व, भोरमदेव वन्यजीव अभ्यारण और कान्हा टाइगर रिजर्व से जुड़ा हुआ है।
सवाल ये उठता है की आखिर जंगली जानवर जंगलों में न रहें तो जाएं कहां? हाथियों को जंगल में नहीं रहने देना ही हाथियों को मजबूर करता है इंसानी बस्तियों की ओर जाने को।